जीवन की जद्दोजहद के बाद जब उम्र ७० के आस पास हुई तो पीछे मुड कर देखा तो ख़ुद को बहुत व्यस्त पाया ,
घर परिवार के लिए आदर्श माँ, आदर्श पत्नी, आदर्श बहू बनने की कोशिश करते हुए ,हर दिन आपने को नए साँचे में डालते हुए, सबसे से निभाते हुए, सबको अपना बनाते हुए ख़ुद को समझाते हुए, अपने रास्ते ख़ुद बनाते हुए, ख़ुद के लिए समय निकालते हुए,
आज अब जीवन की ढलान पर आ गई हूँ तो जानती हूँ कि अब कभी भी कोई लेने आएगा ,उस पार जाने के लिए,
संतुष्ट हूँ, खुश हूँ कि इतनी परीक्षा देते देते यहाँ आ गई हूँ, अभी एक दरवाज़ा आएगा , खुलेगा उस को पार करके अनजान दिशा में ले जाने कोई आएगा, और तब मैं उससे कहूँगी कि
ए मौत अभी ज़रा रुक जा
इतनी भी क्या जल्दी है
ये जो तेरी सौत है, मेरी ज़िंदगी
अभी तो निखर कर सामने आई है
इतना सुंदर रूप तो इसने कभी दिखाया नहीं
इतने सुकून से कभी जीने दिया ही नहीं
इतनी भी क्या जल्दी है
मैं कोई ख़ास नहीं हूँ,
जी कर कुछ ख़ास ना किया तो मर कर, तेरे साथ जा कर क्या ख़ास कर लूँगी,
इसलिए जा ,मुझे कुछ देर अपने साथ जी लेने दे
ख़ुद के लिए जीना क्या होता है ये तो अब जाना है ,इसका मज़ा तो कुछ अलग ही है,
ख़ुद के लिए जीने का कुछ देर मौक़ा दे,
अभी तो बेफ़िक्री में यूँ ही पड़ा रहने दे
जिस ज़िंदगी से दूर मुझे ले जाने आई है उससे बतियाने दे
जो नेमतें उसने दी हैं, उसका मज़ा लेने दे
अब तो जीवन सुलझा सा है इसको और सुलझने दे
धूप में पड़ी हूँ, संगीत सुन रही हूँ,किताबें पढ़ रही हूँ,
जीवन जी रही हूँ,क्या ज़्यादा माँग रही हूँ,ऐसे ही पड़ा रहने दे,
जा फिर कभी आना ऐसे ही पड़ा रहने दे,
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